साहित्य और समाज – गीत : प्रेमलता

साहित्य और समाज – गीत
समाज तन है तो साहित्य मन है,
समाज उर है तो साहित्य स्पंदन है।
एक दुजे के बिन हैं ये अस्तित्वहीन,
समाज रूप है तो साहित्य दर्पण है।
निर्बल का शोषण, धन का पोषण,
मिथ्यारोपण, जब हो समाज लक्षण।
सर्वजन हित, सुनीति के गीत,
मीत-अमित, बने साहित्य रीत।
समाज शब्द है, साहित्य प्रवचन है।
समाज दिल है, साहित्य धड़कन है।-1
विषम वक्षभाव, स्वजन को घाव,
नेह अभाव, हो जब समाज स्वभाव।
प्रथम हिय बात, एकता का सूत्रपात,
समता का सुप्रभात, साहित्य सुर सात।
समाज वन है तो साहित्य मधुबन है।
समाज जन है तो साहित्य जीवन है।-2
सर्वत्र हो आक्रोश, समग्र हो खामोश,
सत्ता जब मदहोश, समाज में असंतोष।
जय-जय जनतंत्र, जय-जय गणतंत्र।
जय-जय स्वतंत्र, साहित्य का अधिमंत्र।
समाज धरती है तो साहित्य गगन है।
समाज क्षणिक तो साहित्य सनातन है।
समाज तन है तो साहित्य मन है,
समाज उर है तो साहित्य स्पंदन है।
रचना – श्रीमती प्रेमलता साहू (व्याख्याता)
शासकीय डी डी एस उच्च माध्यमिक विद्यालय बिर्रा
जिला – जांजगीर-चांपा (छत्तीसगढ़)